धूमेनावियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥38॥
धूमेन-धुंए से; आवियते-आच्छादित हो जाती है; वह्नि:-अग्नि; यथा—जिस प्रकार; आदर्श:-दर्पण; मलेन-धूल से; च-भी; यथा जिस प्रकार; उल्न–गर्भाशय द्वारा; आवृतः-ढका रहता है। गर्भ:-भ्रूण, तथा उसी प्रकार; तेन–काम से; इदम् यह; आवृतम्-आवरण है।
BG 3.38: जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से आवृत रहता है तथा भ्रूण गर्भाशय से अप्रकट रहता है, उसी प्रकार से कामनाओं के कारण मनुष्य के ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है।
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उचित और अनुचित के ज्ञान को विवेक कहा जाता है। यह विवेक मनुष्य की बुद्धि में होता है। वैसे भी काम-वासना एक ऐसा दुर्जेय शत्रु है जो बुद्धि की विवेक शक्ति को आवृत्त कर देता है। श्रीकृष्ण ने इस सिद्धान्त पर प्रकाश डालने हेतु तीन उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। अग्नि जो प्रकाश का स्रोत है, धुएँ से ढकी रहती है। यह आंशिक अंधकार अर्थात् अविवेक छितराए बादलों जैसा होता है जिससे सात्विक इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। दर्पण परावर्तन करता है और धूल से ढक जाता है। यह बुद्धि पर राजसिक कामनाओं के प्रभाव जैसी होती है। भ्रूण गर्भाशय से आवृत्त होता है। यह तामसिक कामनाओं का प्रतीक है जो मनुष्य की विवेक शक्ति को नष्ट कर देता है। उसी प्रकार हमारी कामनाओं के कारण हमारे द्वारा सुना और पढ़ा गया आध्यात्मिक ज्ञान आच्छादित हो जाता है।
इस विषय पर एक सुन्दर कथा इस प्रकार है-एक व्यक्ति जंगल के किनारे प्रतिदिन भ्रमण करता था। एक बार सायंकाल उसने जंगल के भीतर भ्रमण करने का निर्णय लिया। जंगल में कुछ ही मील चलने पर सूर्यास्त होने लगा। जैसे ही वह जंगल से बाहर जाने के लिए वापस मुड़ा तब वह यह देखकर भयभीत हुआ कि दूसरी ओर कई जंगली जानवर खड़े थे। वे खूखार जंगली जानवर उसका पीछा करने लगे और उनसे बचने के लिए वह जंगल में और भीतर की ओर दौड़ने लगा तब उसने अपने सम्मुख एक डायन को खड़ा पाया जो दोनों हाथों को पसारे उसे गले लगाना चाहती थी। उससे बचने के लिए वह दिशा बदलकर भागने लगा और फिर वह पेण्डुलम की भांति डायन और जंगली जानवरों के बीच भागता रहा। इसके बाद अंधेरा हो गया। अधिक दिखाई न देने के कारण वह एक गड्ढे की ओर चला गया जो अंगूर की लताओं से ढका हुआ था। उसमें वह सिर के बल गिरा लेकिन उसके पैर अंगूर की लताओं के बीच फंस गए। परिणामस्वरूप वह गड्ढे के उपर उल्टा झूलने लगा। कुछ समय पश्चात् उसकी चेतना लौटी और उसने देखा कि एक सर्प गड्ढे के नीचे बैठा है जो उसके नीचे गिरने पर उसे डंसने की प्रतीक्षा कर रहा था। कुछ ही क्षणों में वहाँ एक सफेद और एक काले रंग का चूहा दिखा। दोनों चूहें उन टहनियों को काटने लगे जिन पर अंगूर की बेलें लटकी हुई थीं। तभी कुछ ततैये वहाँ आकर उसके मुख पर काटने लगे। किंतु इस विकट परिस्थिति में वह व्यक्ति हँसने लगा। तब कई दार्शनिक वहाँ यह ज्ञात करने आए कि इस प्रतिकूल परिस्थिति में वह व्यक्ति क्यों हँस रहा था। उन्होंने ऊपर की ओर मधुमक्खी के छत्ते को देखा जिसमें से मधु की कुछ बूंदें टपक कर उसकी जीभ पर गिर रही थी। वह मधु को चाटते हुए सोंच रहा था कि यह कितना विलक्षण सुख है और वह जंगली जानवरों, डायन, सर्प, चूहे और ततैयों को भूल गया।
यह व्यक्ति हमें पागल प्रतीत हो सकता है। हालाँकि यह कथा कामनाओं के अधीन रहने वाले सभी मनुष्यों की दशा का वर्णन करती है। जिस जंगल में वह व्यक्ति भ्रमण कर रहा था वह इसी लौकिक संसार का चित्रण करता है जिसमें हम वास करते हैं तथा प्रत्येक क्षण जोखिम से भरा है। उस व्यक्ति का पीछा करने वाले जंगली पशु हमारे जीवन में आने वाले रोगों के द्योतक हैं जो लगातार हमें कष्ट प्रदान करते हैं। डायन वृद्धावस्था का प्रतीक है जो समय व्यतीत होने पर हमारा आलिंगन करने के लिए खड़ी हैं। गड्ढे के नीचे बैठा सर्प प्रतीक्षारत मृत्यु का प्रतीक है। सफेद और काले चूहे जो लताओं को काट रहे थे वे दिन और रात के सूचक है जो हमारे जीवन को धीरे-धीरे मृत्यु के समीप ले जा रहे है। उस व्यक्ति के मुख पर बैठे ततैये हमारी असीम कामनाओं के समान हैं जो हमारी पीड़ा और दुःख का कारण हैं। शहद काम-वासना के सुखों को चित्रित करती है जो हमारे विवेक और बुद्धि को धुंधला करते हैं। विषय भोग में हम इतना लिप्त हो जाते हैं कि हमें अपनी दुर्दशा का आभास नहीं हो पाता । श्रीकृष्ण ने यहाँ व्यक्त किया है कि इस प्रकार की कामनाएँ हमारी विवेक शक्ति पर आवरण डालती हैं।